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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (वाजानां पते) हे अन्नों के रक्षक ! (ब्रह्मा इव) ब्रह्मा [वेदज्ञाता] के समान [होकर] तू (तन्द्रयुः) आलसी (मो षु भुवः) कभी भी मत हो, (गोमतः) वेदवाणी से युक्त (सुतस्य) तत्त्व रस का (मत्स्व) आनन्द भोग ॥३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्वानों के समान निरालसी होकर तत्त्वज्ञान के अभ्यास से सुखी होवें ॥३॥
टिप्पणी: ३−(मो) नैव (सु) (ब्रह्मा) वेदज्ञाता (इव) यथा (तन्द्रयुः) तद्रि अवसादे मोहे च-घञ्, क्यच्-उ। तन्द्रम् आलस्यमिच्छन्। आलस्ययुक्तः (भुवः) भूयाः (वाजानाम्) अन्नानाम् (पते) रक्षक (मत्स्व) हर्षं प्राप्नुहि (सुतस्य) तत्त्वरसस्य (गोमतः) वेदवाणीयुक्तस्य ॥