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शु॒ष्मिन्त॑मं न ऊ॒तये॑ द्यु॒म्निनं॑ पाहि॒ जागृ॑विम्। इन्द्र॒ सोमं॑ शतक्रतो ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

युष्मिन्ऽतमम् । न: । ऊतये । द्युम्निनम् । पाहि । जागृविम् ॥ इन्द्र । सोमम् । शतक्रतो इति शतऽक्रतो ॥५७.४॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:57» पर्यायः:0» मन्त्र:4


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

१-१० मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (शतक्रतो) हे सैकड़ों कर्मों वा बुद्धियोंवाले (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (नः) हमारी (ऊतये) रक्षा के लिये (शुष्मिन्तमम्) अत्यन्त बलवान्, (द्युम्निनम्) अत्यन्त धनी वा यशस्वी और (जागृविम्) जागनेवाले [चौकस] पुरुष की और (सोमम्) ऐश्वर्य की (पाहि) रक्षा कर ॥४॥
भावार्थभाषाः - राजा धर्मात्मा शूरवीरों की और सबके ऐश्वर्य की यथावत् रक्षा करके प्रजा का पालन करे ॥४॥
टिप्पणी: मन्त्र ४-१० आ चुके हैं-अ० २०।२०।१-७ ॥ ४-१०- एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २।२०।१-७ ॥