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देवता: इन्द्रः ऋषि: मेध्यातिथिः छन्द: बृहती स्वर: सूक्त-५७

व॒यं घ॑ त्वा सु॒ताव॑न्त॒ आपो॒ न वृ॒क्तब॑र्हिषः। प॒वित्र॑स्य प्र॒स्रव॑णेषु वृत्रह॒न्परि॑ स्तो॒तार॑ आसते ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वयम् । घ । त्वा । सुतऽवन्त: । आप: । न । वृक्तऽबर्ह‍िष: ॥ पवित्रस्य । प्रऽस्रवणेषु । वृत्रऽहन् । परि । स्तोतार: । आसते ॥५७.१४॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:57» पर्यायः:0» मन्त्र:14


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

मन्त्र १४-१६ परमात्मा की उपासना का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (वृत्रहन्) हे शत्रुनाशक ! [परमात्मन्] (सुतवन्तः) तत्त्व के धारण करनेवाले, (वृक्तबर्हिषः) हिंसा त्यागनेवाले [अथवा बुद्धि पानेवाले विद्वान्], (स्तोतारः) स्तुति करनेवाले (वयम्) हम लोग (घ) निश्चय करके (त्वा) तुझको (परि आसते) सेवते हैं, (पवित्रस्य) शुद्ध स्थान के (प्रस्रवणेषु) झरना में (आपः न) जैसे जल [ठहरते हैं] ॥१४॥
भावार्थभाषाः - तत्त्वग्राही विद्वान् लोग उस परमात्मा के ही ध्यान में शान्ति पाते हैं, जैसे बहता हुआ पानी शुद्ध चौरस स्थान में आकर ठहर जाता है ॥१४॥
टिप्पणी: मन्त्र १४-१६ आचुके हैं-अ० २०।२।१-३ ॥ १४-१६। एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।३।१-३ ॥