य उ॒ग्रः सन्ननि॑ष्टृतः स्थि॒रो रणा॑य॒ संस्कृ॑तः। यदि॑ स्तो॒तुर्म॒घवा॑ शृ॒णव॒द्धवं॒ नेन्द्रो॑ योष॒त्या ग॑मत् ॥
पद पाठ
य: । उग्र: । सन् । अनि:ऽस्तृत: । स्थिर: । रणाय । संस्कृत: ॥ यदि । स्तोतु: । मघऽवा । शृणवत् । हवम् । हवम् । न । इन्द्र: । योषति । आ । गमत् ॥५७.१३॥
अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:57» पर्यायः:0» मन्त्र:13
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
११-१३ सेनापति के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो [वीर] (उग्रः) प्रचण्ड, (अनिष्टृतः) कभी न हराया गया, (स्थिरः) दृढ़ (सन्) होकर (रणाय) रण के लिये (संस्कृतः) संस्कार किये हुए है। (यदि) यदि (मघवा) वह महाधनी (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला सेनापति] (स्तोतुः) स्तुति करनेवाले की (हवम्) पुकार (शृणवत्) सुने, [तो] (न योषति) वह अलग न रहे, [किन्तु] (आ गमत्) आता रहे ॥१३॥
भावार्थभाषाः - प्रतापी, अजेय, युद्धकुशल सेनापति प्रजा की पुकार को सदा ध्यान देकर सुनता रहे ॥१३॥
टिप्पणी: ११-१३ एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।३।१-३ ॥