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देवता: इन्द्रः ऋषि: मेध्यातिथिः छन्द: बृहती स्वर: सूक्त-५३

दा॒ना मृ॒गो न वा॑र॒णः पु॑रु॒त्रा च॒रथं॑ दधे। नकि॑ष्ट्वा॒ नि य॑म॒दा सु॒ते ग॑मो म॒हाँश्च॑र॒स्योज॑सा ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दाना । मृग:। वारण: । पुरुऽत्रा । चरथम् । दधे ॥ नकि: । त्वा । नि । यमत् । आ । सुते । गम: । महान् । चरसि । ओजसा ॥५३.२॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:53» पर्यायः:0» मन्त्र:2


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

सेनापति के लक्षणों का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (न) जैसे (मृगः) जंगली (वारणः) हाथी (दाना) मद के कारण (पुरुत्रा) बहुत प्रकार से (चरथम्) झपट (दधे) लगाता है। [वैसे ही] (नकिः) कोई नहीं (त्वा) तुझे (नि यमत्) रोक सकता, (सुते) तत्त्व रस को (आ गमः) तू प्राप्त हो, (महान्) महान् होकर तू (ओजसा) बल के साथ (चरसि) विचरता है ॥२•॥
भावार्थभाषाः - जैसे वन का मदमत्त हाथी सब ओर बेरोक घूमकर उपद्रव मचाता है, वैसे ही नीतिज्ञ सेनापति तत्त्व विचारकर शत्रुओं को शीघ्र दबावे ॥२॥
टिप्पणी: २−(दाना) दानेन। मदजलेन (मृगः) वनचरः (न) यथा (वारणः) गजः (पुरुत्रा) बहुप्रकारेण (चरथम्) शीङ्शपिरुगमि। उ० ३।११३। चरतेः अथप्रत्ययः। संचरणम् (दधे) धरति (नकिः) न कोऽपि (त्वा) त्वाम् (नि यमत्) नियच्छति (आ) (सुते) तत्त्वरसम् (गमः) प्राप्नुहि (महान्) (चरसि) (ओजसा) ॥