स्वर॑न्ति त्वा सु॒ते नरो॒ वसो॑ निरे॒क उ॒क्थिनः॑। क॒दा सु॒तं तृ॑षा॒ण ओ॑क॒ आ ग॑म॒ इन्द्र॑ स्व॒ब्दीव॒ वंस॑गः ॥
पद पाठ
स्वरन्ति । त्वा । सुते । नर: । वसो इति । निरेके । उक्थिन: ॥ कदा । सुतम् । तृषाण: । ओक: । आ । गम: । इन्द्र । स्वब्दीऽइव । वंसग: ॥५२.२॥
अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:52» पर्यायः:0» मन्त्र:2
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
परमात्मा की उपासना का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (वसो) हे श्रेष्ठ ! [परमात्मन्] (उक्थिनः) कहने योग्य वचनोंवाले (नरः) नर [नेता लोग] (निरेके) निःशङ्क स्थान में (सुते) सार पदार्थ के निमित्त (त्वा) तुझको (स्वरन्ति) पुकारते हैं−(इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] (कदा) कब (तृषाणः) प्यासे [के समान] तू (सुतम्) पुत्र को (ओकः) घर में (आ गमः) प्राप्त होगा, (स्वब्दी इव) जैसे सुन्दर जल देनेवाला मेघ (वंसगः) सेवनीय पदार्थों का प्राप्त करानेवाला [होता है] ॥२॥
भावार्थभाषाः - जब मनुष्य सार पदार्थ पाने के लिये परमात्मा की भक्ति निर्भय होकर करता है, परमात्मा उसको इस प्रकार चाहता है, जैसे प्यासा जल को, और जगदीश्वर इस प्रकार उसका उपकार करता है, जैसे सूखा के पीछे मेह आनन्द देता है ॥२॥
टिप्पणी: २−(स्वरन्ति) शब्दायन्ते। आह्वयन्ति (त्वा) त्वाम् (सुते) सारपदार्थनिमित्ते (नरः) मनुष्याः (वसो) हे श्रेष्ठ (निरेके) रेक शङ्कायाम्-अच्। निःशङ्कस्थाने (उक्थिनः) वक्तव्यवचनोपेताः (कदा) (सुतम्) पुत्रम् (तृषाणः) युधिबुधिदृशः किच्च। उ० २।९०। ञितृषा पिपासायाम्-आनच्, कित्। पिपासुरिव (ओकः) गृहम् (आ गमः) आगच्छेः (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (स्वब्दी) सु+अप्+ददातेः-क, स्वब्द-इनि। सु शोभनानाम् अपां जलानां दानवान् मेघः (इव) यथा (वंसगः) अ० १८।३।३६। वन संभक्तौ-सप्रत्ययः+गमयतेर्डः। सेवनीयपदार्थानां प्रापयिता ॥