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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
ईश्वर की उपासना का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (शक्रः) शक्तिमान् तू (वाचम्) वाणी [वेदवाणी] को (अधृष्णुहि) मत शक्तीहीन कर, वह [परमात्मा] (विमदन्) विशेष रीति से आनन्द करत हुआ, (बर्हिः) उत्तम आसन (आसरन्) पाता हुआ (धाम) धाम-धाम [जगह-जगह] और (धर्मन्) धर्म-धर्म [प्रत्येक धारण करने योग्य कर्तव्य व्यवहार] में (वि राजति) विराजता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - समर्थ विद्वान् पुरुष वेदवाणी के उपदेश से शक्ति बढ़ावे, वह आनन्दस्वरूप परमात्मा अन्तर्यामी होकर सबको शक्ति देता है ॥३॥
टिप्पणी: सूचना−पं० सेवकलाल कृष्णदास परिशोधित संहिता में इस मन्त्र का वह पाठ है−श॒क्रं वा॒चाभि ष्टु॑हि॒ धाम॑न्धाम॒न् विरा॑जति। वि॒मद॑न् ब॒र्हिरास॑दन् ॥३॥ [हे मनुष्य !] (वाचा) वाणी से (शक्रम्) शक्तिमान् [परमेश्वर] की (अभि ष्टुहि) सब ओर से बड़ाई कर, वह [परमात्मा] (विमदन्) विशेष रीति से आनन्द करता हुआ (बर्हिः) उत्तम आसन पर (आ सदन्) बैठा हुआ (धामन् धामन्) धाम-धाम [जगह-जगह] में (वि राजति) विराजता है ॥३॥मनुष्य घट-घट वासी परमात्मा का सदा ध्यान रखकर अपनी अवस्था सुधारता रहे ॥३॥ ३−(शक्रः) शक्तिमांस्त्वम् (वाचम्) वेदवाणीम् (अधृष्णुहि) म० २। शक्तिहीनां मा कुरु (धाम) धाम्नि धाम्नि। प्रत्येकस्थाने (धर्मन्) धर्मणि धर्मणि। प्रत्येकधारणीये कर्तव्ये व्यवहारे (वि) विविधम् (राजति) शोभते (विमदन्) विशेषेण हृष्यन् (बर्हिः) उत्तमासनम् (आसरन्) प्राप्नुवन् ॥ ३−(शक्रम्) शक्तिमन्तं परमात्मानम् (वाचा) (अभि ष्टुहि) (धाम) धामन्। धामनि धामनि। प्रत्येकस्थाने (वि) विशेषेण (राजति) शोभते (विमदन्) विशेषेण हृष्यन् (बर्हिः) उत्तमासनम् (आ सदन्) आतिष्ठन् ॥