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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) उस (ज्येष्ठराजम्) सबसे बड़े राजा, (भरे) सङ्ग्राम में (कृत्नुम्) काम करनेवाले, (वाजिनम्) महाबलवान् [पुरुष] की, (महः) महत्त्व के (सनिभ्यः) दानों के लिये, (सुष्टुत्या) सुन्दर स्तुति के साथ (आ) सब प्रकार (विवासे) मैं सेवा करता हूँ ॥३॥
भावार्थभाषाः - जैसे नदियाँ समुद्र में जाकर विश्राम पाती हैं, वैसे ही विद्वान् लोग पराक्रमी राजा के पास पहुँचकर अपना गुण प्रकाशित करके सुख पावें ॥२, ३॥
टिप्पणी: ३−(तम्) (सुष्टुत्या) शोभनया स्तुत्या (आ) समन्तात् (विवासे) विवासतिः परिचरणकर्मा-निघ० ३।। परिचरामि (ज्येष्ठराजम्) प्रशस्यतमं राजानम् (भरे) सङ्ग्रामे (कृत्नुम्) कृहनिभ्यां क्त्नुः। उ० ३।३०। करोतेः-क्त्नु। कार्यकर्तारम् (महः) मह पूजायाम्-क्विप्। महत्त्वस्य (वाजिनम्) महाबलिनम् (सनिभ्यः) दानेभ्यः ॥