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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (यत्) जो [धन] (वीडौ) बल [वा सेना] में (यत्) जो [धन] (स्थिरे) दृढ़ स्थान में और (यत्) जो [धन] (पर्शाने) मेघ [बरसा] में (पराभृतम्) धरा हुआ है, (तत्) उस (स्पार्हम्) चाहने योग्य (वसु) धन को (आ भर) ले आ ॥२॥
भावार्थभाषाः - राजा को योग्य है कि शत्रुओं ने जो धन सेना में, दृढ़ कोश में, और जो जल आदि स्थान में रक्खा हो, उस सबको ले लेवें ॥२॥
टिप्पणी: २−(यत्) धनम् (वीडौ) भृमृशीङ्०। उ० १।७। वीडयतिः संस्तम्भकर्मा-निरु० ।१६-डप्रत्ययः। वीडु बलनाम-निघ० २।९। बले। सैन्ये (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (यत्) (स्थिरे) दृढस्थाने (यत्) (पर्शाने) अ० ८।४।। परि+शॄ हिंसायाम्-आनच्, डित्, परे रिकारलोपः। पर्शानो मेघः-टिप्पणी, निघ० १।१०। मेघे। वर्षाजले (पराभृतम्) न्यस्तम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥