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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (क्रक्षमाणम्) आकर्षण करते हुए [वश में करते हुए] (त्वा अनु) तेरे पीछे (उभे) दोनों (रोदसी) आकाश और भूमि (अकृपेताम्) समर्थ हुए हैं, (यत्) जबकि तू (दस्युहा) शत्रुओं [विघ्नों] का नाश करनेवाला (अभवः) हुआ ॥२॥
भावार्थभाषाः - परमेश्वर ने अन्धकार आदि विघ्नों को हटाकर वायु, जल, अन्न आदि पदार्थ उत्पन्न करके सब लोकों को धारण किया है, वैसे ही मनुष्य अविद्या मिटाकर परस्पर रक्षा करें ॥२॥
टिप्पणी: २−(अनु) अनुसृत्य (त्वा) त्वाम् (रोदसी) आकाशभूमी (उभे) (क्रक्षमाणम्) कृष विलेखने आकर्षणे-लृट्। स्यतासी लृलुटोः। पा० ३।१।३३। इति स्य। लृटः सद्वा। पा० ३।३।१४। लृटः शानच्, यकारलोपश्छान्दसः। क्रक्ष्यमाणम्। आकर्षन्तम् वशे कुर्वन्तम् (अकृपेताम्) कृपू सामर्थ्ये लङ्। समर्थेऽभवताम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (यत्) यदा (दस्युहा) शत्रूणां विघ्नानां नाशकः (अभवः) ॥