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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (अत्र) यहाँ [राज्यव्यवहार में] (अह) निश्चय करके (गोः) पृथिवी के, (इत्था) इसी प्रकार (चन्द्रमसः) चन्द्रमा के (गृहे) घर [लोक] में (त्वष्टुः) छेदन करनेवाले सूर्य के (अपीच्यम्) भीतर रक्खे हुए (नाम) झुकाव [आकर्षण] को (अमन्वत) उन्होंने जाना है ॥३॥
भावार्थभाषाः - जैसे ईश्वर के नियम से सूर्य अपने प्रकाश और आकर्षण द्वारा पृथिवी और चन्द्र आदि लोकों को उनके मार्ग में दृढ़ रखता है, वैसे ही राजा अपनी सुनीति से प्रजा को धर्म में लगावे ॥३॥
टिप्पणी: यह मन्त्र निरुक्त ४।२। में भी व्याख्यात है ॥ ३−(अत्र) राज्यव्यवहारे (अह) निश्चयेन (गोः) पृथिव्याः (अमन्वत) मनु अवबोधने-लङ्। अजानन् ते विद्वांसः (नाम) नामन्सीमन्व्योमन्०। उ० ४।११। नमतेः-मनिन् धातोर्मलोपो दीर्घश्च, नाम उदकनाम-निघ० १।१२। नमनम्। आकर्षणम् (त्वष्टुः) छेदकस्य सूर्यस्य (अपीच्यम्) आ० १८।१।३६। अपि+अञ्चतेः-क्विन्, यत्। अन्तर्हितम्-निघ० ३।२। (इत्था) अनेन प्रकारेण (चन्द्रमसः) चन्द्ररूपे (गृहे) लोके ॥