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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (वज्री) वज्रधारी, (हिरण्ययः) तेजोमय (इन्द्र) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला राजा] (इत्) ही (इन्द्रः) वायु [के समान] (सचा) नित्य मिले हुए (हर्योः) दोनों संयोग-वियोग गुणों का (संमिश्लः) यथावत् मिलानेवाला (आ) और (वचोयुजा) वचन का योग्य बनानेवाला है ॥॥
भावार्थभाषाः - जैसे पवन के आने-जाने से पदार्थों में चलने, फिरने, ठहरने का और जीभ में बोलने का सामर्थ्य होता है, वैसे ही दण्डदाता प्रतापी राजा के न्याय से सब लोगों में शुभ गुणों का संयोग और दोषों का वियोग होकर वाणी में सत्यता होती है ॥॥
टिप्पणी: −(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (इत्) सब (हर्योः) हृञ् स्वीकारप्रापणयोः-इन्। संयोगवियोगयोः (सचा) षच समवाये-क्विप्, विभक्तेराकारः। समवेतयोः (संमिश्लः) सम्+मिश्रयतेः-घञ्। कपिलादीनां संज्ञाछन्दसोर्वा०। वा० पा०८।२।१८। रेफस्य लत्वम्। सर्वतो मिश्रयिता (आ) चार्थे (वचोयुजा) युजिर् योगे-क्विन्, विभक्तेराकारः। वचसो वचनस्य योजयिता (इन्द्रः) वायुरिव (वज्री) वज्रधारी (हिरण्ययः) तेजोमयः ॥