नू इ॑न्द्र शूर॒ स्तव॑मान ऊ॒ती ब्रह्म॑जूतस्त॒न्वा वावृधस्व। उप॑ नो॒ वाजा॑न्मिमी॒ह्युप॒ स्तीन्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥
पद पाठ
नु । इन्द्र । शूर । स्तवमान: । ऊती । ब्रह्मऽजूत: । तन्वा । ववृधस्व ॥ उप । न: । वाजान् । मिमीहि । उप । स्तीन् । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभि: । सदा । न: ॥३७.११॥
अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:37» पर्यायः:0» मन्त्र:11
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (शूर) हे शूर (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (नु) शीघ्र (स्तवमानः) उत्साह देता हुआ और (ब्रह्मजूतः) धन वा अन्न को प्राप्त होता हुआ तू (ऊती) रक्षा के साथ (तन्वा) शरीर से (वावृधस्व) अत्यन्त बढ़। (नः) हमारे (वाजान्) बलों को और (स्तीन्) घरों को (उप) आदर से (उप मिमीहि) उपमा योग्य [बड़ाई योग्य] कर। [हे वीरो !] (यूयम्) तुम सब (स्वस्तिभिः) सुखों के साथ (सदा) सदा (नः) हमें (पात) रक्षित रक्खो ॥११॥
भावार्थभाषाः - राजा वीर पुरुषों को उत्साह देकर उनकी और अपनी वृद्धि करे और सब लोग उत्तम गुणों से उपमायोग्य प्रशंसनीय होकर परस्पर रक्षा करें ॥११॥
टिप्पणी: इस मन्त्र का चौथा पाद आ चुका है-अ०२०।१२।६, और १७।१२, और आगे है-२०।८७।७॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥११−(नु) शीघ्रम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (शूर) निर्भय (स्तवमानः) स्तुवन्। उत्साहयन् (ऊती) रक्षया (ब्रह्मजूतः) ब्रह्म धनम् अन्नं वा जूतः प्राप्तः (उप) पूजायाम् (तन्वा) शरीरेण (वावृधस्व) भृशं वर्धस्व (नः) अस्माकम् (वाजान्) पराक्रमान् (उप मिमीहि) माङ् माने शब्दे च। भृञामित्। पा०७।४।७६। अभ्यासस्य इत्वम्। ई हल्यघोः। पा०६।४।११३। इति आत ईत्वम्। मिमीष्व। उपमितान् उपमायोग्यान् स्तुत्यान् कुरु (स्तीन्) अच इः। उ०४।१३९। ष्टै वेष्टने-इप्रत्ययः। गृहान्। अन्यत् पूर्ववत्-अ०२०।१२।६॥