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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
दिन और राति के उत्तम प्रयोग का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (उषः) हे उषा ! [प्रभात वेला] (अश्विनौ) दोनों अश्वी [व्यापक दिन-राति] को (प्र बोधय) जगादे, (देवि) हे देवी ! [व्यवहारकुशल] (सूनृते) हे अन्नवाली ! (महि) हे पूजनीया ! [उषा] (प्र=प्र बोधय) जगादे। (यज्ञहोतः) हे उत्तम संगति देनेवाले ! [विद्वान्] (आनुषक्) लगातार (प्र) जगादे, (बृहत्) बड़े (श्रवः) यश के लिये और (मदाय) आनन्द के लिये (प्र) जगादे ॥२॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य प्रातःकाल उठकर सदा अन्न आदि धन, कीर्ति और आनन्द के लिये प्रयत्न करें ॥२॥
टिप्पणी: २−(प्र बोधय) जागरय (उषः) हे प्रभातवेले (अश्विनौ) व्यापकौ। अहोरात्रौ (प्र) प्र बोधय (देवि) हे व्यवहारकुशले (सूनृते) अथ० ३।१२।२। सूनृता यज्ञनाम-निघ० २।७, अर्शआद्यच्, टाप्। हे अन्नवति (महि) हे महति (प्र) प्र बोधय (यज्ञहोतः) हे उत्तमसंगतिदातः। विद्वन् (आनुषक्) अथ० ४।३२।१। अनुषक्तं निरन्तरम् (प्र) प्र बोधय (मदाय) हर्षाय (श्रवः) विभक्तेर्लुक्। श्रवसे। यशसे (बृहत्) बृहते। महते ॥