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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
दिन और राति के उत्तम प्रयोग का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (नासत्या) हे सदा सत्य स्वभाववाले दोनों ! [दिन-राति] (यत्) जो (भेषजम्) औषध (पराके) दूर में और (अर्वाके) समीप में (अस्ति) है। (प्रचेतसा) हे उत्तम ज्ञान करानेवाले दोनों (तेन) उस [औषध] के साथ (नूनम्) अवश्य करके (विमदाय) निरहंकारी [वा अदीन] (वत्साय) शास्त्रों के कहनेवाले पुरुष को (छर्दिः) घर (यच्छतम्) दान करो ॥॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य घर और बाहिर समय को उत्तम रीति से काम में लगाकर सुन्दर घरों में स्वस्थ रहें ॥॥
टिप्पणी: −(यत्) (नासत्या) सू० १४०।१। हे सदा सत्यस्वभावौ (पराके) पिनाकादयश्च। उ० ४।१। परा+क्रमु पादविक्षेपे-आकप्रत्ययः, धातुलोपः। पराके दूरनाम-निघ० ३।२६। पराके पराक्रान्ते-निरु० ।९। दूरदेशे (अर्वाके) वलाकादयश्च। उ० ४।१४। अर्वाक्+क्रमु पादविक्षेपे-आकप्रत्ययः, धातुलोपः। अर्वाके अन्तिकनाम-निघ० ३।१६। समीपे (अस्ति) (भेषजम्) औषधम् (तेन) भेषजेन सह (नूनम्) अवश्यम् (विमदाय) अ० ४।२९।४। निरहंकाराय। अदीनाय (प्रचेतसा) प्रकृष्टं ज्ञानं याभ्यां तौ। हे प्रकृष्टज्ञानकारकौ (छर्दिः) गृहम् (वत्साय) सू० १३८।१। शास्त्राणां कथनशीलाय (यच्छतम्) दत्तम् ॥