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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
दिन और रात्रि के उत्तम प्रयोग का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे दोनों अश्वी ! [व्यापक दिन-राति] (रघुवर्तनिम्) हलके घूमनेवाले [अति शीघ्रगामी] (रथम्) रथ पर (नूनम्) अवश्य (आ तिष्ठाथः) तुम चढ़ते हो, (मम) मेरे (इमे) यह (स्तोमाः) स्तुति के वचन (वाम्) तुम दोनों को (नभः न) मेघ के समान [शीघ्र] (आ) सब ओर से (चुच्यवीरत) [हमें] प्राप्त कराते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - जैसे पवन से बादल आकाश में दौड़ता है, उससे भी अधिक शीघ्रगामी काल को वश में लाकर बुद्धिमान् आनन्द पाते हैं ॥३॥
टिप्पणी: ३−(आ तिष्ठाथः) अधितिष्ठथः (नूनम्) अवश्यम् (रघुवर्तनिम्) वृतेश्च। उ० २।१०६। लघु+वृतु वर्तने-अनि, लस्य रः। लघुवर्तनोपेतम्। अतिशीघ्रगामिनम् (रथम्) यानम् (अश्विना) म० २। हे व्यापकौ। अहोरात्रौ (आ) समन्तात् (वाम्) युवाम् (स्तोमाः) स्तुतिवचनानि (इमे) (मम) (नभः) मेघः (न) यथा (चुच्यवीरत) अन्तर्गतण्यर्थः। च्यवयन्ति। गमयन्ति ॥