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देवता: इन्द्रः ऋषि: सुकक्षः छन्द: गायत्री स्वर: सूक्त १३७

तमिन्द्रं॑ वाजयामसि म॒हे वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे। स वृषा॑ वृष॒भो भु॑वत् ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम् । इन्द्रम् । वाजयामसि । महे । वृत्राय । हन्तवे ॥ स: । वृषा । वृषभ: । भुवत् ॥१३७.१२॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:137» पर्यायः:0» मन्त्र:12


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) उस (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] को (महे) बड़े (वृत्राय) रोकनेवाले वैरी के (हन्तवे) मारने को (वाजयामसि) हम बलवान् करते हैं [उत्साही बनाते हैं], (सः) वह (वृषा) पराक्रमी (वृषभः) श्रेष्ठ वीर (भुवत्) होवे ॥१२॥
भावार्थभाषाः - प्रजागण राजा को शत्रुओं के मारने के लिये सहाय करें और राजा भी प्रजा की भलाई के लिये प्रयत्न करे ॥१२॥
टिप्पणी: मन्त्र १२-१४ आचुके हैं-अथ० २०।४७।१-३ ॥ १२-१४−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० २०।४७।१-३ ॥