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म॑हान॒ग्न्युप॑ ब्रूते स्वसा॒वेशि॑तं॒ पसः॑। इ॒त्थं फल॑स्य॒ वृक्ष॑स्य॒ शूर्पे॑ शूर्पं॒ भजे॑महि ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

महान् । अग्नी इति । उप । ब्रूते । स्वसा । आऽवेशितम् । पस: ॥ इत्थम् । फलस्य । वृक्षस्य । शूर्पे । शूर्पम् । भजेमहि ॥१३६.९॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:136» पर्यायः:0» मन्त्र:9


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (महान्) महान् पुरुष (अग्नी) दोनों अग्नियों [आत्मिक और सामाजिक बलों] को (उप) पाकर (स्वसा) सुन्दर गति [उपाय] से (आवेशितम्) प्राप्त हुए (पसः) राज्यप्रबन्ध के विषय में (ब्रूते) कहता है−[कि] (इत्थम्) इसी प्रकार से (वृक्षस्य) स्वीकार करने योग्य (फलस्य) फल के (शूर्पे) एक सूप में (शूर्पम्) दूसरे सूप को (भजेमहि) हम सेवें ॥९॥
भावार्थभाषाः - जैसे मनुष्य अन्न आदि पदार्थ को सूप से लगातार शुद्ध करते हैं, वैसे ही राज्य का प्रबन्ध सदा विचार से करना चाहिये ॥९॥
टिप्पणी: ९−(महान्) (अग्नी) म० । आत्मिकसामाजिकप्रतापौ (उप) उपेत्य (ब्रूते) (स्वसा) सु+अस गतिदीप्त्यादानेषु−क्विप्। सुगत्या। उचितोपायेन (आवेशितम्) प्राप्तम्। रक्षितम् (पसः) म० २। राज्यप्रबन्धम् (इत्थम्) एवम् (फलस्य) (वृक्षस्य) वृक्ष वरणे-क। स्वीकरणीयस्य (शूर्पे) शूर्प माने-घञ्। एकस्मिन् धान्यस्फोटके (शूर्पम्) अन्यं शूर्पम् (भजेमहि) सेवेमहि ॥९॥