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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (महान्) महान्, (भ्रष्टः) परिपक्व, (अथ अपि) और भी (अभूभुवः) अशुद्धि का शोधनेवाला पुरुष (अग्नी) दोनों अग्नियों [आत्मिक और सामाजिक बलों] को (उप) पाकर (ब्रूते) कहता है−(यथा) जैसे (वयः) जीवन को (विदाह्य) विविध प्रकार तपाकर (स्वर्गे) स्वर्ग में [सुख विशेष में] (नम्) बन्धन को (अवदह्यते) [विद्वान्] भस्म कर देता है, [वैसे ही मनुष्य करे] ॥८॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य शुद्ध चित्त से बल बढ़ाकर विद्वानों के समान ब्रह्मचर्य आदि तप करके दुःखों से मुक्त होवे ॥८॥
टिप्पणी: ८−(वयः) सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। वी गतिव्याप्तिप्रजननादिषु−असुन्। जीवनम् (विदाह्य) दह दाहे। विविधं तपश्चरणेन तप्त्वा (स्वर्गे) सुखविशेषे (नम्) णह बन्धे−ड। बन्धम् (अवदह्यते) भस्मीकरोति विनाशयति विद्वान्। अन्यद् गतम्−म० ७ ॥