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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (महान्) महान् पुरुष (अग्नी) दोनों अग्नियों [आत्मिक और सामाजिक बलों] से (उलूखलम्) ओखली को (अतिक्रामन्ति) लाँघता है और (अब्रवीत्) कहता है−(वनस्पते) हे वनस्पति ! [काठ के पात्र] (यथा) जैसे (तव) तुझमें (निरघ्नन्ति) [लोग] कूटते हैं, (तथा) वैसे ही (एवति) ज्ञान के विषय में [होवे] ॥६॥
भावार्थभाषाः - जैसे ओखली में कूटकर सार पदार्थ लेते हैं, वैसे ही मनुष्य परिश्रम करके ज्ञान प्राप्त करें ॥६॥
टिप्पणी: ६−(महान्) (अग्नी) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेः पूर्वसवर्णदीर्घः, प्रगृह्यत्वाभावश्च। अग्निभ्याम्। आत्मिकसामाजिकबलाभ्याम् (उलूखलम्) धान्यादिकण्डनपात्रम् (अतिक्रामन्ति) एकवचनस्य बहुवचनम्। अतिक्रामति। उल्लङ्घयति (अब्रवीत्) ब्रवीति (यथा) (तव) त्वयि (वनस्पते) हे काष्ठमय पात्र (निरघ्नन्ति) अकारश्छान्दसः। निर्घ्नन्ति। नितरामाहननं कुर्वन्ति मनुष्याः (तथा) (एवति) वर्तमाने पृषद्बृहन्मह०। उ० २।८४। इवि व्याप्तौ−अति, नकारलोपः। ज्ञानविषये ॥