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यद्दे॒वासो॑ ललामगुं॒ प्रवि॑ष्टी॒मिन॑माविषुः। स॑कु॒ला दे॑दिश्यते॒ नारी॑ स॒त्यस्या॑क्षि॒भुवो॒ यथा॑ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत् । देवास । ललामऽगुम् । प्र । विष्टीमिनम् । आविषु: ॥ सकुला । देदिश्यते । नारी । सत्यस्य । अक्षिभुव: । यथा ॥१३६.४॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:136» पर्यायः:0» मन्त्र:4


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जैसे (देवासः) विद्वान् लोग (ललामगुम्) प्रधानता पहुँचानेवाले (विष्टीमिनम्) कोमलता से युक्त न्याय में (प्र आविषुः) प्रविष्ट हुए हैं। और (यथा) जैसे (सकुला) बाल बच्चोंवाली (नारी) नारी [स्त्री] (अक्षिभुवः) आँखों से हुए [प्रत्यक्ष] (सत्यस्य) सत्य का (देदिश्यते) बार-बार उपदेश करती है [वैसे ही राजा न्याय और उपदेश करे] ॥४॥
भावार्थभाषाः - जैसे पूर्वज लोग न्याय करने से प्रधान हुए हैं, और जैसे माता सत्य का उपदेश करके सन्तानों को गुणी बनाती है, वैसे ही राजा प्रजा का हित करता रहे ॥४॥
टिप्पणी: यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−२३।२९। और महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ ३३४ में व्याख्यात है ॥ ४−(यत्) यथा (देवासः) विद्वांसः (ललामगुम्) प्रथेरमच्। उ० ।६८। लल ईप्सायाम्−अमच् पृषोदरादिदीर्घः। गच्छतेः-डु। ललामं पुच्छपुण्ड्राश्वभूषाप्राधान्यकेतुषु−अमरः २३।१४२। प्राधान्यस्य गमयितारं प्रापयितारम् (प्र) (विष्टीमिनम्) वि+ष्टीम क्लेदे−घञ्। अत इनिठनौ। पा० ।२।११। विष्टीम−इनि। विशेषेण आर्द्रभावेन कोमलत्वेन युक्तं, न्यायम् (आविषुः) अव रक्षणगतिप्रवेशादिषु−लुङ्। प्रविष्टवन्तः (सकुला) कुलैः सन्तानैः सह वर्त्तमाना (देदिश्यते) दिश दाने−यङ्प्रत्ययः। पुनः पुनरुपदेशं करोति (नारी) नरस्य स्त्री (सत्यस्य) यथार्थज्ञानस्य (अक्षिभुवः) अक्षि+भू−क्विप्। अक्षिभ्यां भवस्य प्रत्यक्षस्य (यथा) ॥