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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जब (अल्पिकासु) छोटी प्रजाओं में (अल्पिका) छोटी प्रजा (कर्कन्धूके) अग्नि के झोके में (अवपद्यते) कष्ट पाती है। [तब] (वित्पति) विद्वानों के पतन में (अवाताय) दुःख मिटाने के लिये (वासन्तिकम् इव) वसन्त ऋतु में होनेवाली [उत्तेजना] के समान (तेजनम्) उत्तेजना को (यन्ति) वे [शूर लोग] पाते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - छोटी-छोटी प्रजाओं पर अन्याय होने से बड़ों को हानि पहुँचती है, इसलिये शूर वीर पुरुष वसन्त ऋतु के समान उत्तेजित होकर शत्रुओं का नाश करें ॥३॥
टिप्पणी: ३−(यत्) यदा (अल्पिकासु) क्षुद्रासु प्रजासु (अल्पिका) क्षुद्रा प्रजा (कर्कन्धूके) कृदाधा०। उ० ३।४०। डुकृञ् करणे−कप्रत्ययः, ककारस्य इत्संज्ञा न। सृवृभू०। उ० ३।४१। धूञ् कम्पने−कक्। कर्कस्य अग्नेः धूके कम्पने (अवपद्यते) अवसीदति। दुःखं प्राप्नोति (वासन्तिकम्) वसन्ताच्च। पा० ४।३।२०। वसन्त−ठञ्। वसन्ते भवं तेजनम् (इव) यथा (तेजनम्) उद्दीपनम्। उत्तेजनाम्। प्रेरणाम् (यन्ति) प्राप्नुवन्ति ते शूराः (अवाताय) वात गतौ सेवायां सुखीकरणे च−घञ्। वातं सुखम् अवातं दुःखम्। तत् नाशयितुम् (वित्पति) विद ज्ञाने−क्विप्+पत्लृ गतौ−क्विप्। विदां विदुषां पति अधःपतने ॥