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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे प्रजा जन !] (सुदेवः) बड़ा विजय चाहनेवाला, (महान्) महान् पुरुष (त्वा) तुझसे (महतः) बड़े (अग्नीः) अग्नियों [आत्मिक और सामाजिक बलों] के द्वारा (खोदनम्) खोदने के कर्म [सैंध सुरंग आदि] को (साधु) भले प्रकार (बबाधते) रोकता है। (पीवरः) पुष्टाङ्ग पुरुष (कुसम्) आपस में मिलाप को (नवत्) प्राप्त करे ॥१२॥
भावार्थभाषाः - राजा और प्रजा के मेल से चोर आदि दुष्ट लोग प्रजा को न सतावें ॥१२॥
टिप्पणी: १२−(सुदेवः) सुविजिगीषुः (त्वा) प्रजाजनसकाशात् (महान्) (अग्नीः) अग्नीन्। आत्मिकसामाजिकपराक्रमैः-इत्यर्थः (बबाधते) बाधते। निवारयति (महतः) विशालान्। विशालैः (साधु) यथा तथा। यथावत् प्रकारेण (खोदनम्) खुड संवरणे भेदने च−ल्युट्। भेदनम्। सन्धिकरणम्। (कुसम्) कुस संश्लेषणे−क, परस्परसंगमनम् (पीवरः) अर्त्तिकमिभ्रमि०। उ० ३।१३२। पीव स्थौल्ये−अरप्रत्ययः, स च चित्। पुष्टः पुरुषः (नवत्) नवत इति गतिकर्मा−निघ० २।१४। प्राप्नुयात् ॥