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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (महान्) महान् पुरुष (अग्नी) दोनों अग्नियों [आत्मिक और सामाजिक बलों] के, और (महान्) महान् पुरुष (अग्नम्) ज्ञानवान् (धावन्तम् अनु) दौड़ते हुए के पीछे (धावति) दौड़ता है। (तत्) सो (अस्य) इस [पुरुष] को (इमाः) इन (गाः) भूमियों की (रक्ष) रक्षा कर, (यभ) हे न्यायकारी ! (माम्) मुझको (औदनम्) भोजन (अद्धि) खिला ॥११॥
भावार्थभाषाः - महान् पुरुष आत्मिक और सामाजिक बल प्राप्त करके ज्ञानियों का अनुकरण करे और राज्य की रक्षा करके प्रजा को पाले ॥११॥
टिप्पणी: ११−(महान्) (अग्नी) म० । आत्मिकसामाजिकपराक्रमौ (महान्) (अग्नम्) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। अग गतौ−न प्रत्ययः। ज्ञानवन्तम् (धावन्तम्) शीघ्रं गच्छन्तम् (अनु) अनुकृत्य (धावति) शीघ्रं गच्छति (इमाः) (तत्) ततः (अस्य) पुरुषस्य (गाः) भूमीः, (रक्ष) (यभ) मस्य भः। हे यम। न्यायकारिन् (माम्) प्रजाजनम् (अद्धि) अद भक्षणे, अन्तर्गतणिजर्थः। आदय। खादय। (औदनम्) स्वार्थे अण्। भोजनम् ॥