आदि॑त्या रु॒द्रा वस॑व॒स्त्वेनु॑ त इ॒दं राधः॒ प्रति॑ गृभ्णीह्यङ्गिरः। इ॒दं राधो॑ वि॒भु प्रभु॑ इ॒दं राधो॑ बृ॒हत्पृथु॑ ॥
पद पाठ
आदित्या: । रुद्रा: । वसव । त्वे । अनु । ते । इदम् । राध: । प्रति । गृभ्णीहि ।अङ्गिर: ॥ इदम् । राध: । विभु । प्रभु । इदम् । राध: । बृहत् । पृथु ॥१३५.९॥
अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:135» पर्यायः:0» मन्त्र:9
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे शूर सभापति !] (ते) वे (आदित्याः) अखण्ड ब्रह्मचारी, (रुद्राः) ज्ञानदाता और (वसवः) श्रेष्ठ विद्वान् लोग (त्वे अनु) तेरे पीछे-पीछे हैं, (अङ्गिरः) हे विज्ञानी पुरुष ! (इदम्) इस (राधः) धन को (प्रति) प्रत्यक्ष रूप से (गृभ्णीहि) तू ग्रहण कर। (इदम्) यह (राधः) धन (विभु) व्यापक और (प्रभु) बलयुक्त है, (इदम्) यह (राधः) धन (बृहत्) बहुत और (पृथु) विस्तीर्ण है ॥९॥
भावार्थभाषाः - शूर प्रतापी सभापति की सुनीति से सब लोग ब्राह्मण आदि चारों वर्ण अपना-अपना कर्तव्य पूरा करें और विद्या और धन की वृद्धि से संसार में सुख बढ़ावें ॥९॥
टिप्पणी: इस मन्त्र का मिलान करो-अथ० ११।६।१३ और १९।११।४ ॥ ९−(आदित्याः) अदिति−ण्य। अखण्डब्रह्मचारिणः (रुद्राः) रुतो ज्ञानस्य रातारो दातारः (वसवः) श्रेष्ठपुरुषाः (त्वे) विभक्तेः शे। त्वाम् (अनु) अनुसृत्य (ते) प्रसिद्धाः (इदम्) (राधः) धनम् (प्रति) प्रत्यक्षेण (गृभ्णीहि) गृहाण (अङ्गिरः) विज्ञानिन् (इदम्) (राधः) (विभु) व्यापकम् (प्रभु) समर्थम् (इदम्) (राधः) (बृहत्) बहु (पृथु) विस्तृतम् ॥