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प्र॑ती॒पं प्राति॑ सु॒त्वन॑म् ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रतीपम् । प्राति । सुत्वनम् ॥१२९.२॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:129» पर्यायः:0» मन्त्र:2


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

मनुष्य के लिये प्रयत्न का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (एताः) यह (अश्वाः) व्यापक प्रजाएँ (प्रतीपम्) प्रत्यक्ष व्यापक (सुत्वनम् प्राति) ऐश्वर्यवाले [परमेश्वर] के लिये (आ) आकर (प्लवन्ते) चलती हैं ॥१, २॥
भावार्थभाषाः - संसार के सब पदार्थ उत्पन्न होकर परमेश्वर की आज्ञा में वर्त्तमान हैं ॥१, २॥
टिप्पणी: २−(प्रतीपम्) आप्नोतेर्ह्रस्वश्च उ० २। ५८। प्रति+आप्लृ व्याप्तौ-क्विप्। ऋक्पूरब्धूःपथामानक्षे। पा० ५। ४। ७४। अप्रत्ययः। द्व्यन्तरुपसर्गेभ्योऽप ईत्। पा०। ६। ३। ९३। इति ईत्। प्रत्यक्षव्यापकम् (प्राति) सांहितिको दीर्घः। प्रति। उद्दिश्य (सुत्वनम्) सुयजोर्ङ्वनिप्। पा०। ३। २। १०३। षु प्रसवैश्वर्ययोः-ङ्वनिप्, तुक् च। उत्पादकम्। ऐश्वर्यवन्तं परमेश्वरम् ॥