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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जिन (देवाः) विद्वानों ने (अयजन्त) मेल किया है, (अथो च च) और (ये) जो (पराददिः) शत्रुओं के पकड़नेवाले हैं। (सूर्यः) सूर्य (दिवम् इव) जैसे आकाश को (गत्वाय) प्राप्त होकर, [वैसे ही] (मघवा) महाधनी [सभापति] (नः) उन हमको [प्राप्त होकर] (वि) विविध प्रकार (रप्शते) शोभित होता है ॥॥
भावार्थभाषाः - सभ्य लोग और सभापति मिलकर संसार का उपकार करके शोभा बढ़ावें, जैसे सूर्य आकाश में चमककर उपकार करता हुआ शोभित होता है ॥॥
टिप्पणी: −(ये) (अथो च च) समुच्चये (देवाः) विद्वांसः (अयजन्त) संगतिं कृतवन्तः (ये) (पराददिः) अथ० २०।६।२। बहुचनस्यैकवचनम्। पराददयः। पराणां शत्रूणामादातारो ग्रहीतारः (सूर्यः) (दिवम्) आकाशम् (इव) यथा (गत्वाय) ल्यप् छान्दसः। गत्वा। प्राप्य (मघवा) धनवान्। सभापतिः (नः) अस्मान् प्राप्य (वि) विविधम् (रप्शते) राजते-ऋग्वेदभाष्ये ४।४।१, दयानन्दसायणौ ॥