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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (हर्योः) ले चलनेवाले दोनों बल और पराक्रम के (पृष्ठम्) पीछे (धावन्तम्) दौड़ते हुए (औच्चैःश्रवसम्) उच्चैःश्रवा [बड़ी कीर्तिवाले वा ऊँचे कानोंवाले घोड़े] से (अब्रुवन्) वे [चतुर लोग] बोले, (अश्व) हे घोड़े ! (स्वस्ति) कुशल से (जैत्राय) जीतने के लिये (सुस्रजम्) सुन्दर माला के समान सुन्दर सेनावाले (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] को (आ वह) ले आ ॥१॥
भावार्थभाषाः - चतुर विद्वान् लोग श्रेष्ठ घोड़े आदि लाकर राजा को देवें, जिससे वह अपनी बड़ी सेना के साथ रणक्षेत्र में दुष्ट शत्रुओं को जीते ॥१॥
टिप्पणी: १−(पृष्ठम्) पृष्ठतः। अनुसरणेन (धावन्तम्) शीघ्रं गच्छन्तम् (हर्योः) हरणशीलयोर्बलपराक्रमयोः (औच्चैःश्रवसम्) उच्चैः+श्रु श्रवणे-असुन्, स्वार्थे अण्। औच्चैःश्रवसः अश्वनाम-निघ० १।१४। उच्चैर्महत्त्वं श्रवो यशो यस्य, यद्वा उन्नते श्रवसी कर्णौ यस्य तम्। बहुकीर्तिमन्तमुन्नतकर्णं वा घोटकम् (अब्रुवन्) अकथयन् ते विद्वांसः (स्वस्ति) कुशलेन (अश्व) हे घोटक (जैत्राय) जेतृ-अण्। जयाय (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं पुरुषम् (आ वह) आनय (सुस्रजम्) सृज विसर्गे-क्तिन्। सुमालयेव सुसेनया युक्तम् ॥