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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जब, (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य] (दाशराज्ञे) दानपात्र सेवकों के राजा के लिये [अर्थात् अपने लिये] (अदः) उस [वेदोक्त] (मानुषम्) मनुष्य के कर्म को (वि गाहथाः) तूने बिलो डाला है [गड़बड़ कर दिया है]। (सर्वस्मै) सबके लिये (विरूपः) वह दुष्ट रूपवाला व्यवहार (आसीत्) हुआ है। यह [मनुष्य] (यक्षाय) पूजनीय कर्म के लिये (सह) मिलकर (कल्पते) समर्थ होता है ॥१२॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य वेदमर्यादा को तोड़कर स्वार्थ के लिये सेवक आदि को सताता है, वह सबको कष्ट देता है, इसलिये मनुष्य सदा परोपकार करे ॥१२॥
टिप्पणी: १२−(यत्) यदा (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् मनुष्य (अदः) तत्। वेदोक्तम् (दाशराज्ञे) दाशृ दाने-घञ्। राजृ दीप्तौ ऐश्वर्ये च-कनिन्। दाशानां दानीयानां दानपात्राणां भृत्यानां स्वामिहिताय। स्वार्थाय (मानुषम्) मनु-अण् षुक् च। मनुष्यसम्बन्धि कर्म (वि गाहथाः) गाहृ विलोडने-लुङ्, अडभावः। विलोडितवानसि (विरूपः) विकृतरूपो दुष्टरूपो व्यवहारः (सर्वस्मै) प्रत्येकप्राणिने (आसीत्) (सह) संयोगेन (यक्षाय) यक्ष पूजायाम्-घञ्। पूजनीयकर्मणे (कल्पते) कृपू सामर्थ्ये। समर्थो भवति ॥