वांछित मन्त्र चुनें

न सेशे॒ यस्य॑ रोम॒शं नि॑षे॒दुषो॑ वि॒जृम्भ॑ते। सेदी॑शे॒ यस्य॒ रम्ब॑तेऽन्त॒रा क्थ्या॒ कपृ॒द्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न । स: । ईशे । यस्य । रोमशम् । निऽसेदुष: । विऽजृम्भते ॥ स: । इत् । ईशे । यस्य । रम्बते । अन्तरा । सक्थ्यो । कपृत् । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.१७॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:126» पर्यायः:0» मन्त्र:17


बार पढ़ा गया

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वह पुरुष (न ईशे) ऐश्वर्यवान् नहीं होता, (यस्य निषेदुषः) जिस बैठे हुए [आलसी] का (रोमशम्) रोमवाला मस्तक (विजृम्भते) जँभाई लेता है, (सः इत्) वही पुरुष (ईशे) ऐश्वर्यवान् होता है, (यस्य) जिसका (कपृत्) शिर पालनेवाला कपाल (सक्थ्या अन्तरा) दोनों जङ्घाओं के बीच [ध्यान में] (रम्बते) नीचे लटकता है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (श्विस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१७॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य आलस्य से शिर झुकाकर ओंघने लगते हैं, उनको विद्या, सुवर्ण और राज्य आदि ऐश्वर्य नहीं मिलता, ऐश्वर्य उनको मिलता है, जो शिर को झुकाकर अपना आपा सोचते हुए इन्द्र बनते हैं ॥१७॥
टिप्पणी: १७−(विजृम्भते) आलस्येन जृम्भां मुखविकाशं करोति। अन्यत् पूर्ववत् ॥