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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे राजन् !] (सखीनाम्) [अपने] सखाओं और (जरितॄणाम्) स्तुति करनेवाले (नः) हम लोगों का (सु) उत्तम (अविता) रक्षक होकर तू (शतम्) सौ प्रकार से (ऊतिभिः) रक्षाओं के साथ (अभि) सामने (भवासि) होवे ॥३॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार प्रजागण राजा के हित के लिये प्रयत्न करें, वैसे ही राजा भी उनका हित करे ॥३॥
टिप्पणी: ३−(अभि) अभिमुखम् (सु) (नः) अस्माकम् (सखीनाम्) सुहृदाम् (अविता) रक्षकः (जरितॄणाम्) स्तोतॄणाम्। सद्गुणविदाम् (शतम्) बहुप्रकारेण (भवासि) लेटि रूपम्। भवेः (ऊतिभिः) रक्षाभिः ॥