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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (कः) कमनीय वा आगे बढ़ता हुआ, वा सुख देनेवाला (सत्यः) सत्यशीलवाला, (मदानाम्) आनन्दों और (अन्धसः) अन्न का (मंहिष्ठः) महादानी राजा (दृढा) दृढ़ (वसु) धनों को (चित्) अवश्य (आरुजे) खोल देने के लिये (त्वा) तुझे [प्रजा जन] को (मत्सत्) तृप्त करे ॥२॥
भावार्थभाषाः - सत्यशील राजा सुनीति से प्रजा को प्रसन्न रखकर धन-धान्य को बढ़ावे ॥२॥
टिप्पणी: २−(कः) म० १। कमनीयः। क्रमणशीलः। सुखप्रदः (त्वा) त्वां प्रजाजनम् (सत्यः) सत्सु साधुः (मदानाम्) आनन्दानाम् (मंहिष्ठः) अ० २०।१।१। दातृतमः (मत्सत्) आनन्दयेत् (अन्धसः) अन्नस्य (दृढा) दृढानि (चित्) अवश्यम् (आरुजे) दृशे विख्ये च। पा० ३।४।११। आ+रुजो भङ्गे-केन् तुमर्थे। समन्ताद् भङ्क्तुम्। प्रकाशयितुम् (वसु) वसूनि। धनानि ॥