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देवता: सूर्यः ऋषि: कुत्सः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: सूक्त-१२३

तत्सूर्य॑स्य देव॒त्वं तन्म॑हि॒त्वं म॒ध्या कर्तो॒र्वित॑तं॒ सं ज॑भार। य॒देदयु॑क्त ह॒रितः॑ स॒धस्था॒दाद्रात्री॒ वास॑स्तनुते सि॒मस्मै॑ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तत् । सूर्यस्य । देवऽत्वम् । तत् । महिऽत्वम् । मध्या । कर्तो: । विऽततम् । सम् । जभार ॥ यदा । इत् । अयुक्त । हरित: । सधऽस्थात् । आत् । रात्री । वास: । तनुते । सिमस्मै ॥१२३.१॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:123» पर्यायः:0» मन्त्र:1


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

सूर्य के काम का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) उस [ब्रह्म] ने (सूर्यस्य) सूर्य के (मध्यः) बीच में (तत्) उस (विततम्) फैले हुए (देवत्वम्) प्रकाशपन को, (महित्वम्) बड़प्पन को और (कर्तोः) [आकर्षण आदि] कर्म को (सम् जभार) बटोरकर रख दिया है−कि (यदा इत्) जब ही वह [सूर्य] (हरितः) रस पहुँचानेवाली किरणों को (सधस्थात्) एक से स्थान से (अयुक्त) जोड़ता है, [आगे बढ़ाता है], (आत्) तभी (रात्री) रात्री (सिमस्मै) सबके लिये (वासः) वस्त्र [अन्धकार] (तनुते) फैलाती है ॥१॥
भावार्थभाषाः - जिस परमात्मा ने बहुत बड़े तेजस्वी, आकर्षक सूर्यलोक को बनाया है, और जो उस सूर्य और पृथिवी की गति से प्रकाश और रात्रि करके प्राणियों को कार्यकुशलता और विश्राम देता है, सब मनुष्य उस जगदीश्वर की उपासना करें ॥१॥
टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-१।११।४, ॥ १−(तत्) प्रसिद्धं ब्रह्म (सूर्यस्य) रविमण्डलस्य (देवत्वम्) प्रकाशत्वम् (तत्) प्रसिद्धम् (महित्वम्) महत्त्वम् (मध्या) विभक्तेराकारः। मध्ये (कर्तोः) करोतेः-तोसुन्प्रत्ययः। कर्म (विततम्) विस्तृतम् (सम्) संचित्य (जभार) जहार। गृहीतवान् (यदा) (इत्) एव (अयुक्त) युनक्ति (हरितः) रसप्रापकान् रश्मीन् (सधस्थात्) समानस्थानात् (आत्) अनन्तरम् (रात्री) (वासः) वस्त्रम्। अन्धकारम् (तनुते) विस्तारयति (सिमस्मै) सर्वस्मै संसाराय ॥