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यद्वा॒ रुमे॒ रुश॑मे॒ श्याव॑के॒ कृप॒ इन्द्र॑ मा॒दय॑से॒ सचा॑। कण्वा॑सस्त्वा॒ ब्रह्म॑भि॒ स्तोम॑वाहस॒ इन्द्रा य॑च्छ॒न्त्या ग॑हि ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत् । वा । समे । रुशमे । श्यावके । कृपे । इन्द्र । मादयसे । सचा ॥ कण्वास: । त्वा । ब्रह्मऽभि: । स्तोमऽवाहस: । इन्द्र । आ । यच्छन्त‍ि । आ । गहि ॥१२०.२॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:120» पर्यायः:0» मन्त्र:2


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (यत्) जब (रुमे) ज्ञानी पुरुष में, (रुशमे) हिंसकों के फैंकनेवाले में, (श्यावके) उद्योगी में (वा) और (कृपे) समर्थ में (सचा) नित्य मेल से (मादयसे) तू हर्ष पाता है, [तभी] (इन्द्र) हे इन्द्र [परमात्मन्] (स्तोमवाहसः) बड़ाई के प्राप्त करानेवाले (कण्वासः) बुद्धिमान् लोग (त्वा) तुझको (ब्रह्मभिः) वेदवचनों से (आ यच्छन्ति) अपनी ओर खींचते हैं, (आ गहि) तू आ ॥२॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा स्वभाव से पुरुषार्थियों पर कृपा करता है, इसी से विद्वान् लोग उसे हृदय में वर्तमान जानकर संसार में उन्नति करते हैं ॥२॥
टिप्पणी: २−(यत्) यदा (वा) च (रुमे) अविसिवि०। उ० १।१४४। रुङ् गतिरेषणयोः-मन्, कित्। ज्ञानिनि पुरुषे (रुशमे) रुश हिंसायाम्-क+डुमिञ् प्रक्षेपणे-डप्रत्ययः। हिंसकानां प्रक्षेप्तरि (श्यावके) अ० ।।८। गतिशीले। उद्योगिनि (कृपे) कृपू सामर्थ्ये-क। समर्थे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (मादयसे) हृष्यसि (सचा) समवायेन (कण्वासः) मेधाविनः (त्वा) (ब्रह्मभिः) वेदवचनैः (स्तोमवाहसः) अ० २–०।९८।११। स्तुतिप्रापकाः (इन्द्र) (आ यच्छन्ति) आनीय यमयन्ति। आकर्षन्ति (आगहि) आगच्छ ॥