बार पढ़ा गया
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा के कर्म का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (त्वत्) तुझसे [अलग होकर] (निष्ट्याः इव) वर्णसङ्कर नीचों के समान और (अरणाः इव) न बात करने योग्य शत्रुओं के समान और (प्रजहितानि) छोड़ दिये गये (वनानि न) वृक्षों के समान (मा भूम) हम न होवें, (अद्रिवः) हे वज्रधारी ! (दुरोषासः) न जल सकनेवाले वा न मर सकनेवाले [अर्थात् जीते हुए, प्रबल] (अमन्महि) हम समझे जावें ॥१॥
भावार्थभाषाः - राजा प्रजा की रक्षा करके उसको प्रबल और मित्र बनाये रक्खे, जैसे माली वृक्षों को सींचकर उपयोगी बनाता है ॥१॥
टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।१।१३, १४ ॥ १−(मा भूम) न भवेम (निष्ट्याः) अथ० १।१९।३। निस्-त्यप् गतार्थो निर्गता वर्णाश्रमेभ्यः। चाण्डालाः। वर्णसङ्कराः (इव) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (त्वत्) त्वत्तः (अरणाः) रण शब्दे-अप्। असंभाषणीयाः। शत्रवः (इव) (वनानि) वृक्षजातानि (न) इव (प्रजाहितानि) ओहाक् त्यागे-क्त। शाखादिभिः परित्यक्तानि। प्रक्षीणानि (अद्रिवः) हे वज्रवन् (दुरोषासः) उष दाहे हिंसे च-घञ्, असुक्। ओषितुं दग्धुं हिंसितुं वा अशक्याः। जीवन्तः प्रबलाः (अमन्महि) मन ज्ञाने लिङर्थे लुङ्। ज्ञाता भवेम ॥