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देवता: इन्द्रः ऋषि: वत्सः छन्द: गायत्री स्वर: सूक्त-११५

ये त्वामि॑न्द्र॒ न तु॑ष्टु॒वुरृष॑यो॒ ये च॑ तुष्टु॒वुः। ममेद्व॑र्धस्व॒ सुष्टु॑तः ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ये । त्वाम् । इन्द्र । न । तुस्तुवु: । ऋषय: । ये । च । तुस्तुवु: । मम । इत् । वर्धस्व । सुऽस्तुत: ॥११५.३॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:115» पर्यायः:0» मन्त्र:3


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (ये) जिन [नास्तिकों] ने (त्वाम्) तुझको (न) नहीं (तुष्टुवुः) सराहा है, (च) और (ये) जिन (ऋषयः) ऋषियों [ज्ञानी महात्माओं] ने (तुष्टुवुः) सराहा है, [इन दोनों में] (सुष्टुतः) अच्छे प्रकार स्तुति किया हुआ तू (मम) मेरी (इत्) भी (वर्धस्व) वृद्धि कर ॥३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य परमात्मा की भक्ति करके ऐसे प्रिय आचरण करें कि नास्तिक भी आस्तिक होवें और वेदज्ञानी आस्तिक रहकर उपकार करें ॥३॥
टिप्पणी: ३−(ये) नास्तिकाः (त्वाम्) (इन्द्र) परमेश्वर (न) निषेधे (तुष्टुवुः) स्तुतवन्तः (ऋषयः) साक्षात्कृतधर्माणि (ये) (च) समुच्चये (तुष्टुवुः) स्तुतवन्तः (मम) (इत्) एव (वर्धस्व) वृद्धिं कुरु (सुष्टुतः) शोभनं स्तुतः सन् ॥