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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमेश्वर] (त्वम्) तू (जनुषा) जन्म से (सनात्) सदा (अभ्रातृव्यः) बिना वैरीवाला, (अना) बिना नेतावाला और (अनापिः) बिना बन्धुवाला (असि) है, (युधा) युद्ध में (हि) ही [हमारे साथ संग्राम होने पर ही] (आपित्वम्) बन्धुपन [हमारे लिये सहायता] (इच्छसे) तू चाहता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - अनादि, अद्वितीय परमात्मा अपने धर्मात्मा भक्तों को सदा संकट से छुड़ाता है ॥१॥
टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।२१।१३, १४, सामवेद, उ० ६।२।४ म० १ सा० पू० ।२।१ ॥ १−(अभ्रातृव्यः) अ० २।१८।१। शत्रुरहितः (अना) अनेतृकः (त्वम्) (अनापिः) बन्धुवर्जितः (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (जनुषा) जन्मना (सनात्) चिरादेव (असि) (युधा) विभक्तेराकारः। अस्माभिः सह युद्धे (इत्) एव (आपित्वम्) बन्धुत्वम् (इच्छसे) कामयसे ॥