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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (सोमासः) सोमरस [तत्त्व रस] (परावति) दूर देश में और (ये) जो (अर्वावति) समीप देश में (सुन्विरे) निचोड़े गये हैं। (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] (तान् सर्वान्) उन सबको (गच्छसि) तू प्राप्त होता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य को चाहिये कि पुरुषार्थ करके दूर और समीप अर्थात् सब स्थान में उत्तम विद्या प्राप्त करके ऐश्वर्य बढ़ावें ॥३॥
टिप्पणी: यह मन्त्र सामवेद में कुछ भेद से है-उ० ४।२।११ ॥ ३−(ये) (सोमासः) तत्त्वरसाः (परावति) दूरदेशे (ये) (अर्वावति) समीपदेशे (सुन्विरे) सुनोतेः कर्मणि लिट्। अभिषुता बभूवुः (सर्वान्) (तान्) सोमान् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् पुरुष (गच्छसि) प्राप्नोषि ॥