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यस्मि॒न्विश्वा॒ अधि॒ श्रियो॒ रण॑न्ति स॒प्त सं॒सदः॑। इन्द्रं॑ सु॒ते ह॑वामहे ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यस्मिन् । विश्वा: । अधि । श्रिय: । रणन्ति । सप्त । सम्ऽसद: ॥ इन्द्रम् । सुते । हवामहे ॥११०.२॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:110» पर्यायः:0» मन्त्र:2


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्मिन्) जिस [पुरुष] में (सप्त) सात (संसदः) मिलकर बैठनेवाले [अर्थात् त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, वाक्, मन और बुद्धि] (विश्वाः) सब (श्रियः) सम्पत्तियों को (अधि) अधिकारपूर्वक (रणन्ति) पाते हैं, (इन्द्रम्) उस इन्द्र [महाप्रतापी मनुष्य] को (सुते) सिद्ध किये तत्त्वरस में (हवामहे) हम बुलाते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य इन्द्रियों को वश करके सब सम्पत्तियाँ प्राप्त करे, वह सबका माननीय होवे ॥२॥
टिप्पणी: यजुर्वेद ३४।। में आया है−(सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे) सात ऋषि [अर्थात् त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, वाक्, मन और बुद्धि] शरीर में रक्खे हुए हैं ॥ २−(यस्मिन्) इन्द्रे (विश्वाः) सर्वाः (अधि) अधिकृत्य (श्रियः) सम्पत्तीः (रणन्ति) गच्छन्ति। प्राप्नुवन्ति (सप्त) सप्तसंख्याकाः (संसदः) परस्परस्थितिशीलाः−त्वचानेत्रश्रोत्रजिह्वावाङ्मनोबुद्धयः (इन्द्रम्) तं महाप्रतापिनं मनुष्यम् (सुते) निष्पादिते तत्त्वरसे (हवामहे) आह्वयामः ॥