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त्वे क्रतु॒मपि॑ पृञ्चन्ति॒ भूरि॒ द्विर्यदे॒ते त्रिर्भ॑व॒न्त्यूमाः॑। स्वा॒दोः स्वादी॑यः स्वा॒दुना॑ सृजा॒ सम॒दः सु मधु॒ मधु॑ना॒भि यो॑धीः ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वे इति । क्रतुम् । अपि । पृञ्चन्ति । भूरि । द्वि:। यत् । एते । त्रि: । भ‍वन्ति । ऊमा: ॥ स्वादो । स्वादीय: । स्वादुना । सृज । सम् । अद: । सु । मधु । मधुना । अभि । योधी: ॥१०७.६॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:107» पर्यायः:0» मन्त्र:6


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

१-१२ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमात्मन् !] (त्वे अपि) तुझमें ही (क्रतुम्) अपनी बुद्धि को (भूरि) बहुत प्रकार से [सब प्राणी] (पृञ्चन्ति) जोड़ते हैं, (एते) यह सब (ऊमाः) रक्षक प्राणी (द्विः) दो बार [स्त्री-पुरुष रूप से] (त्रिः) तीन-बार [स्थान, नाम और जन्म रूप से] (भवन्ति) रहते हैं। (यत्) क्योंकि (स्वादोः) स्वादु से (स्वादीयः) अधिक स्वादु मोक्ष सुख को (स्वादुना) स्वादु [सांसारिक सुख] के साथ (सम् सृज) संयुक्त कर, (अदः) उस (मधु) मधुर [मोक्ष सुख] को (मधुना) मधुर [सांसारिक] ज्ञान के साथ (सु) भले प्रकार (अभि) सब ओर से (योधीः) तूने पहुँचाया है ॥६॥
भावार्थभाषाः - लिङ्गरहित आत्मा कभी स्त्री कभी पुरुष होकर अपने कर्मानुसार मनुष्य आदि शरीर, नाम और जाति भोगता है। सब प्राणी परमेश्वर की महिमा जानकर सांसारिक व्यवहार द्वारा मोक्ष सुख प्राप्त करें, जैसे कि पूर्वज ऋषियों ने वेद द्वारा प्राप्त किया है ॥६॥
टिप्पणी: ४-१२−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० ।२।१-९ ॥