१-१२ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमात्मन् !] (त्वे अपि) तुझमें ही (क्रतुम्) अपनी बुद्धि को (भूरि) बहुत प्रकार से [सब प्राणी] (पृञ्चन्ति) जोड़ते हैं, (एते) यह सब (ऊमाः) रक्षक प्राणी (द्विः) दो बार [स्त्री-पुरुष रूप से] (त्रिः) तीन-बार [स्थान, नाम और जन्म रूप से] (भवन्ति) रहते हैं। (यत्) क्योंकि (स्वादोः) स्वादु से (स्वादीयः) अधिक स्वादु मोक्ष सुख को (स्वादुना) स्वादु [सांसारिक सुख] के साथ (सम् सृज) संयुक्त कर, (अदः) उस (मधु) मधुर [मोक्ष सुख] को (मधुना) मधुर [सांसारिक] ज्ञान के साथ (सु) भले प्रकार (अभि) सब ओर से (योधीः) तूने पहुँचाया है ॥६॥
भावार्थभाषाः - लिङ्गरहित आत्मा कभी स्त्री कभी पुरुष होकर अपने कर्मानुसार मनुष्य आदि शरीर, नाम और जाति भोगता है। सब प्राणी परमेश्वर की महिमा जानकर सांसारिक व्यवहार द्वारा मोक्ष सुख प्राप्त करें, जैसे कि पूर्वज ऋषियों ने वेद द्वारा प्राप्त किया है ॥६॥