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ए॒वा म॒हान्बृ॒हद्दि॑वो॒ अथ॒र्वावो॑च॒त्स्वां त॒न्वमिन्द्र॑मे॒व। स्वसा॑रौ मात॒रिभ्व॑री अरि॒प्रे हि॒न्वन्ति॑ चैने॒ शव॑सा व॒र्धय॑न्ति च ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

एव । महान् । बृहत्ऽदिव: । अथर्वा । अवोचत् । स्वाम् । तन्वम् । इन्द्रम् । एव ॥ स्वसारौ । मातरिभ्वरी इति । अरिप्रे इति । हिन्वन्ति । च । एने इति । शवसा । वर्धयन्ति । च ॥१०७.१२॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:107» पर्यायः:0» मन्त्र:12


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

१-१२ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (महान्) महान्, (बृहद्दिवः) बड़े व्यवहारवाले, (अथर्वा) निश्चलस्वभाव पुरुष ने (स्वाम्) अपनी (तन्वम्) विस्तृत स्तुति (इन्द्रम्) परमेश्वर के लिये (एव) ही (एव) इस प्रकार से (अवोचत्) कही है। (मातरिभ्वरी) आकाश में वर्तमान (स्वसारौ) अच्छे प्रकार ग्रहण करनेवाले वा गतिवाले [वा दो बहिनों के समान सहायकारी] दिन और रात (च) और (अरिप्रे) निर्दोष (एने) यह दोनों [सूर्य और पृथिवी] (शवसा) अपने सामर्थ्य से [उसी को] (हिन्वन्ति) प्रसन्न करती (च) और (वर्धयन्ति) सराहती हैं ॥१२॥
भावार्थभाषाः - हमसे पहिले ऋषियों ने भी उसी परमात्मा की स्तुति की है, और दिन-रात आदि काल और सूर्य पृथिवी आदि सब लोक उसीके आज्ञाकारी हैं ॥१२॥
टिप्पणी: ४-१२−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० ।२।१-९ ॥