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इ॒मा ब्रह्म॑ बृ॒हद्दि॑वः कृणव॒दिन्द्रा॑य शू॒षम॑ग्नि॒यः स्व॒र्षाः। म॒हो गो॒त्रस्य॑ क्षयति स्व॒राजा॒ तुर॑श्चि॒द्विश्व॑मर्णव॒त्तप॑स्वान् ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इमा । ब्रह्म । बृहत्ऽदिव: । कृणवत् । इन्द्राय । शूषम् । अग्निय: । स्व:ऽसा: ॥ मह: । गोत्रस्य । क्षयति । स्वऽराजा । तुर: । चित् । विश्वम् । अर्णवत् । तपस्वान् ॥१०७.११॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:107» पर्यायः:0» मन्त्र:11


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

१-१२ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहद्दिवः) बड़े व्यवहार वा गतिवाला, (अग्रियः) अगुआ और (स्वर्षाः) स्वर्ग का सेवन करनेवाला पुरुष (इन्द्राय) परमेश्वर के लिये (इमा) इन (ब्रह्म=ब्रह्माणि) बड़े स्तोत्रों को (शूषम्) अपना बल (कृणवत्) बनावें। (स्वराजा) वह स्वराजा [स्वतन्त्र राजा परमेश्वर] (महः) बड़े (गोत्रस्य) भूपति राजा का (क्षयति) राजा है, और वह (तुरः) शीघ्रस्वभाव, (तपस्वान्) सामर्थ्यवाला परमात्मा (चित्) ही (विश्वम्) सब जगत् में (अर्णवत्) व्यापता है ॥११॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य जगदीश्वर परम पिता के गुण जानकर अपना बल बढ़ावें ॥११॥
टिप्पणी: ४-१२−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० ।२।१-९ ॥