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अ॒यं स॒हस्र॒मृषि॑भिः॒ सह॑स्कृतः समु॒द्र इ॑व पप्रथे। स॒त्यः सो अ॑स्य महि॒मा गृ॑णे॒ शवो॑ य॒ज्ञेषु॑ विप्र॒राज्ये॑ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अयम् । सहस्रम् । ऋषिऽभि: । सह:ऽकृत: । समुद्र:ऽइव । पप्रथे ॥ सत्य: । स: । अस्य । महिमा । गृणे । शव: । यज्ञेषु । विप्रऽराज्ये ॥१०४.२॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:104» पर्यायः:0» मन्त्र:2


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (समुद्रः इव) आकाश के समान वर्तमान (अयम्) इस [परमेश्वर] ने (ऋषिभिः) ऋषियों [वेदार्थ जाननेवालों] द्वारा (सहस्कृतः) पराक्रम करनेवालों को (सहस्रम्) सहस्र प्रकार से (पप्रथे) फैलाया है। (अस्य) इस [परमात्मा] की (सः) वह (महिमा) महिमा (सत्यः) सत्य है, (विप्रराज्ये) विद्वानों के राज्य के बीच (यज्ञेषु) यज्ञों [श्रेष्ठ व्यवहारों] में (शवः) उस बल की (गृणे) मैं बड़ाई करता हूँ ॥२॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि परमात्मा की सदा स्तुति करते रहें, क्योंकि वह विद्वानों को प्राप्त होकर राज्य करनेवाले पुरुष का बल बढ़ाता है ॥२॥
टिप्पणी: २−(अयम्) परमेश्वरः (सहस्रम्) बहुप्रकारेण (ऋषिभिः) वेदार्थविद्भिः (सहस्कृतः) पराक्रमकर्तॄन् (समुद्रः) अन्तरिक्षम् (इव) यथा (पप्रथे) विस्तारितवान् (सत्यः) यथार्थः (सः) (अस्य) परमेश्वरस्य (महिमा) महत्त्वम् (गृणे) स्तौमि (शवः) बलम् (यज्ञेषु) श्रेष्ठव्यवहारेषु (विप्रराज्ये) मेधाविनां राष्ट्रे ॥