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अ॒ग्निं दू॒तं वृ॑णीमहे॒ होता॑रं वि॒श्ववे॑दसम्। अ॒स्य य॒ज्ञस्य॑ सु॒क्रतु॑म् ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अग्निम् । दूतम् । वृणीमहे । होतारम् । विश्वऽवेदसम् ॥ अस्य । यज्ञस्य । सुक्रतुम् ॥१०१.१॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:101» पर्यायः:0» मन्त्र:1


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

भौतिक अग्नि के गुणों का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (दूतम्) पदार्थों के पहुँचानेवाले वा तपानेवाले, (होतारम्) वेग आदि देनेवाले, (विश्ववेदसम्) सब धनों के प्राप्त करानेवाले, (अस्य) इस [प्रसिद्ध] (यज्ञस्य) यज्ञ [संयोग-वियोग व्यवहार] के (सुक्रतुम्) सुधारनेवाले (अग्निम्) अग्नि [आग, बिजुली, सूर्य] को (वृणीमहे) हम स्वीकार करते हैं ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि कला यन्त्र, यान, विमान आदि में वेग से चलाने के लिये और शरीरों में भोजन आदि द्वारा बल बढ़ाने लिये बिजुली आदि अग्नि को काम में लावें ॥१॥
टिप्पणी: यह तृच ऋग्वेद में है-१।१२।१-३, सामवेद उ० २।१। तृच ६ तथा म० १ साम० पू० १।१।३ ॥ १−(अग्निम्) विद्युत्सूर्यपार्थिवाग्निरूपम् (दूतम्) पदार्थानां प्रापकं तापकं वा (वृणीमहे) स्वीकुर्मः (होतारम्) वेगादिदातारम् (विश्ववेदसम्) सर्वधनप्रापकम् (अस्य) प्रसिद्धस्य (यज्ञस्य) संयोगवियोगव्यवहारस्य (सुक्रतुम्) शोभनकर्तारम् ॥