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देवता: इन्द्रः ऋषि: नृमेधः छन्द: उष्णिक् स्वर: सूक्त-१००

यु॒ञ्जन्ति॒ हरी॑ इषि॒रस्य॒ गाथ॑यो॒रौ रथ॑ उ॒रुयु॑गे। इ॑न्द्र॒वाहा॑ वचो॒युजा॑ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

युञ्जन्ति । हरी इति । इषिरस्य । गाथया । उरौ । रथे । उरुऽयुगे ॥ इन्द्रऽवाहा । वच:ऽयुजा ॥१००.३॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:100» पर्यायः:0» मन्त्र:3


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (गाथया) प्रशंसा के साथ (इषिरस्य) शीघ्रगामी [राजा] के (उरुयुगे) बड़े जुएवाले, (उरौ) बड़े (रथे) रथ में (इन्द्रवाहा) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] को ले चलनेवाले, (वचोयुजा) वचन से जुतनेवाले (हरी) दो घोड़ों को (युञ्जन्ति) वे [सारथी आदि] जोतते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - राजा धर्म की रक्षा के लिये सुशिक्षित शीघ्रगामी घोड़ों के रथ से चलकर प्रशंसा पावें ॥३॥
टिप्पणी: ३−(युञ्जन्ति) योजयन्ति (हरी) अश्वौ (इषिरस्य) शीघ्रगामिनो राज्ञः (गाथया) गायनीयया प्रशंसया (उरौ) महति (रथे) याने (उरुयुगे) महायुगयुक्ते (इन्द्रवाहा) इन्द्रस्य वोढारौ (वचोयुजा) वचनेन युज्यमानौ। सुशिक्षितौ ॥