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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
मनुष्यों को कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (इदम्) यह (यत्) जो (परमेष्ठिनम्) सर्वोत्कृष्ट परमात्मा में ठहरनेवाला (वाम्) तुम दोनों [स्त्री-पुरुषों] का (मनः) मन (ब्रह्मसंशितम्) वेदज्ञान से तीक्ष्ण किया गया है, और (येन) जिस [मन] के द्वारा (एव) ही (घोरम्) घोर [भयङ्कर पाप] (ससृजे) उत्पन्न हुआ है, (तेन) उस [मन] के द्वारा (एव) ही (नः) हमारे लिये (शान्तिः) शान्ति [धैर्य, आनन्द] (अस्तु) होवे ॥४॥
भावार्थभाषाः - यह मन जो परमात्मा का निवास और वेदज्ञान का कोश है, यदि उस मन में कोई विकार उत्पन्न हो तो हे मनुष्यो ! उस को ठीक करके परस्पर सुख बढ़ाओ ॥४॥
टिप्पणी: ४−(इदम्) उपस्थितम् (यत्) (परमेष्ठिनम्) अर्त्तेः किदिच्च। उ० २।५१। परम+ष्ठा गतिनिवृत्तौ-इनन्, कित्। परमे सर्वोत्कृष्टे परमात्मनि स्थितिशीलम् (मनः) अन्तःकरणम् (वाम्) युवयोः। स्त्रीपुरुषयोः (ब्रह्मसंशितम्) ब्रह्मणा वेदज्ञानेन तीक्ष्णीकृतम् उत्तेजितम्। (येन) मनसा (तेन) मनसा। अन्यत् पूर्ववत्-म० ३ ॥