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हरिः॑ सुप॒र्णो दिव॒मारु॑हो॒ऽर्चिषा॒ ये त्वा॒ दिप्स॑न्ति॒ दिव॑मु॒त्पत॑न्तम्। अव॒ तां ज॑हि॒ हर॑सा जातवे॒दोऽबि॑भ्यदु॒ग्रोऽर्चिषा॒ दिव॒मा रो॑ह सूर्य ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

हरिः। सुऽपर्णः। दिवम्। आ। अरुहः। अर्चिषा। ये। त्वा। दिप्सन्ति। दिवम्। उत्ऽपतन्तम्। अव। तान्। जहि। हरसा। जातऽवेदः। अबिभ्यत्। उग्रः। अर्चिषा। दिवम्। आ। रोह। सूर्य ॥६५.१॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:65» पर्यायः:0» मन्त्र:1


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

पराक्रम करने का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (हरिः) दुःख का हरनेवाला, (सुपर्णः) बड़ा पालनेवाला तू (अर्चिषा) पूजनीय कर्म से (दिवम्) चाहने योग्य सुख स्थान में (आ अरुहः) ऊँचा चढ़ा है, (ये) जो [विघ्न] (दिवम्) सुखस्थान को (उत्पतन्तम्) चढ़ते हुए (त्वाम्) तुझे (दिप्सन्ति) दबाना चाहते हैं, (जातवेदः) हे बड़े धनवाले ! (तान्) उनको (हरसा) [अपने] बल से (अव जहि) मार डाल, (अबिभ्यत्) भय न करता हुआ, (उग्रः) तेजस्वी तू (सूर्य) हे सूर्य ! [प्रेरक मनुष्य] (अर्चिषा) पूजनीय कर्म से (दिवम्) सुखस्थान को (आ रोह) चढ़ जा ॥१॥
भावार्थभाषाः - पराक्रमी पुरुष सब विघ्नों को हटा कर धनवान् होकर सुखी होवें ॥१॥
टिप्पणी: १−(हरिः) दुःखस्य हर्ता (सुपर्णः) महापालकः (दिवम्) दिवु कान्तौ-कप्रत्ययः। कमनीयं सुखस्थानम् (आ अरुहः) रोहतेर्लुङ्। आरूढवानसि (अर्चिषा) पूजनीयेन कर्मणा (ये) विघ्नाः (त्वा) (दिप्सन्ति) दम्भितुमिच्छन्ति। जिघांसन्ति (दिवम्) (उत्पतन्तम्) उद्गच्छन्तम् (अवजहि) विनाशय (तान्) विघ्नान् (हरसा) बलेन (जातवेदः) हे प्रसिद्धधन (अबिभ्यत्) भीतिम् अकुर्वन् (उग्रः) प्रचण्डः (अर्चिषा) पूजनीयेन कर्मेणा (दिवम्) (आरोह) अधितिष्ठ (सूर्य) हे प्रेरक प्रतापिन् ॥