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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
भौतिक अग्नि के उपयोग का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (बृहते) बढ़ते हुए, (जातवेदसे) पदार्थों में विद्यमान (अग्ने=अग्नये) अग्नि के लिये (समिधम्) समिधा [जलाने के वस्तु काष्ठ आदि] को (आ अहार्षम्) मैं लाया हूँ। (सः) वह (जातवेदाः) पदार्थों में विद्यमान [अग्नि] (मे) मुझे (श्रद्धाम्) श्रद्धा [आदर, विश्वास] (च च) और (मेधाम्) धारणावती बुद्धि (प्र यच्छतु) देवे ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि काष्ठ घृत और अन्य द्रव्यों से भौतिक अग्नि को प्रज्वलित करके हवन और शिल्प कार्यों में उपयोगी करें तथा उसके गुणों में श्रद्धा और बुद्धि बढ़ावें और इसी प्रकार परमात्मा की भक्ति को अपने हृदय में स्थापित करें ॥१॥
टिप्पणी: इस सूक्त का मिलान करो-यजु० ३।१-४ ॥१−(अग्ने) सुपां सुपो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। चतुर्थ्यर्थे सम्बोधनम्। भौतिकाग्नये (समिधम्) समिन्धनसाधनं काष्ठघृतादिकम् (अहार्षम्) आहृतवानस्मि (बृहते) वर्धमानाय (जातवेदसे) पदार्थेषु विद्यमानाय (सः) अग्निः (मे) मह्यम् (श्रद्धाम्) आदरम्। विश्वासम् (च) (मेधाम्) धारणावतीं बुद्धिम् (जातवेदाः) पदार्थेषु विद्यमानः (प्रयच्छतु) ददातु ॥