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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमात्मन् !] (मा) मुझे (देवेषु) ब्राह्मणों [ज्ञानियों] में (प्रियम्) प्रिय (कृणु) कर, (मा) मुझे (राजसु) राजाओं में (प्रियम्) प्रिय (कृणु) कर। (उत) और (आर्ये) वैश्य में (उत) और (शूद्रे) शूद्र में और (सर्वस्य) सब (पश्यतः) देखनेवाले [जीव] का (प्रियम्) प्रिय [कर] ॥२॥
भावार्थभाषाः - जैसे परमेश्वर सब ब्राह्मण आदि से निष्पक्ष होकर प्रीति करता है, वैसे ही विद्वानों को सब संसार से प्रीति करनी चाहिये ॥१॥
टिप्पणी: इस मन्त्र का मिलान अथ० १९।३२।८ और निम्नलिखित मन्त्र से करो-यजु० १८।४८ ॥ रुचे॑ नो धेहि ब्राह्म॒णेषु॒ रुच॒ राज॑सु नस्कृधि। रुचं॒ विश्ये॑षु शू॒द्रेषु॒ मयि॑ धेहि रु॒चा रुच॑म् ॥ [हे जगदीश्वर !] (नः) हमारी (रुचम्) प्रीति को (ब्राह्मणेषु) ब्राह्मणों [वेदवेत्ताओं] में (धेहि) धारण कर, (नः) हमारी (रुचम्) प्रीति को (राजसु) राजाओं में (कृधि) कर। (रुचम्) [हमारी] प्रीति को (विश्येषु) मनुष्यों के हितकारी वैश्यों में और (शूद्रेषु) शोकयुक्त शूद्रों में [कर], (मयि) मुझमें (रुचा) [मेरी] प्रीति के साथ (रुचम्) [उनकी] प्रीति को (धेहि) धर ॥१−(प्रियम्) हितकरम् (मा) माम् (कृणु) कुरु (देवेषु) ब्राह्मणेषु। वेदज्ञेषु (प्रियम्) (राजसु) क्षत्रियेषु (मा) (कृणु) (प्रियम्) (सर्वस्य) समस्तस्य (पश्यतः) दृष्टिवतो जीवस्य (उत) अपि च (शूद्रे) शुचेर्दश्च। उ० २।१९। शुच शोके-रक्प्रत्ययः, दश्चान्तादेशो धातोर्दीर्घश्च। शोचनीये मूर्खे (उत) (आर्ये) अ० १९।३२।८। आर्यशब्द उत्तमवर्णब्राह्मणक्षत्रियवैश्यवाचकत्वादत्र वैश्यवाची। वैश्ये ॥