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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
सृष्टिविद्या का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो कुछ (इदम्) यह (सर्वम्) सब है, (च) और (यत्) जो कुछ (भूतम्) उत्पन्न हुआ और (भाव्यम्) उत्पन्न होनेवाला है [उसका] (उत) और (अमृतत्त्वस्य) अमरपन [अर्थात् दुःखरहित मोक्षसुख] का, और (यत्) जो कुछ (अन्येन सह) दूसरे [अर्थात् मोक्ष से भिन्न दुःख] के साथ (अभवत्) हुआ है, [उसका भी] (ईश्वरः) शासक (पुरुषः) पुरुष [परिपूर्ण परमात्मा] (एव) ही है ॥४॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा ही भूत, भविष्यत् वर्तमान और सृष्टि, स्थिति, प्रलय का स्वामी होकर जीवों को उनके कर्मानुसार मोक्ष वा नरक देता है। इस मन्त्र का अर्थ यत् तद् भाव के विचार से किया गया है ॥४॥
टिप्पणी: यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।९०।२। यजुर्वेद ३१।२। और सामवेद−पू० ६।१३।५ ॥ ४−(पुरुषः) परिपूर्णः परमात्मा (एव) निश्चयेन (इदम्) वर्तमानं जगत् (सर्वम्) सम्पूर्णम् (यत्) यत् किञ्चित्, तस्यापीश्वरः (भूतम्) उत्पन्नम् (यत्) (च) (भाव्यम्) उत्पत्स्यमानम्, तस्यापीश्वरः (उत) अपि च (अमृतत्त्वस्य) मरणकारणस्य दुःखस्य राहित्यस्य। मोक्षसुखस्य (ईश्वरः) अधिष्ठाता। शासकः (यत्) यत् किञ्चित् (अन्येन) भिन्नेन। अमृतत्वाद् मोक्षसुखाद् भिन्नेन नरकेण (अभवत्) (सह) ॥